राजस्थान की मिट्टी में संगीत की जो रवायतें बसती हैं, वे सदियों पुरानी हैं। इस रेतीले प्रदेश की फिज़ा में जो सुर घुले हुए हैं, वे केवल ध्वनि नहीं, बल्कि एक रूहानी अहसास हैं। इन्हीं सुरों की महक में एक नाम रावण हत्था का भी है, जो अपनी जादुई धुनों से दिलों को मोह लेता है। यह केवल एक वाद्य यंत्र नहीं, बल्कि राजस्थान की संस्कृति, परंपरा और लोक संगीत का जीता-जागता निशान है। इसकी हर तान में रेगिस्तान की ख़ामोशी, अमावस की रात, चूड़ियों की खनक और प्रेम के विरह का एहसास छुपा हुआ है।
रावण हत्था का ऐतिहासिक सफर
रावण हत्था का इतिहास काफ़ी पुराना और दिलचस्प है। लोकमान्यताओं के मुताबिक, यह वाद्य यंत्र रावण ने खुद तैयार किया था और इसका प्रयोग भगवान शिव की उपासना में किया जाता था। इसलिए इसका नाम “रावण हत्था” पड़ा। लेकिन यह महज़ एक किवदंती नहीं, बल्कि इस वाद्य यंत्र का सफर लंका से राजस्थान और गुजरात होते हुए पूरे भारत और दक्षिण एशिया तक फैला।
मध्यकाल में जब राजस्थान की रियासतें अपनी कलात्मक संस्कृति को बढ़ावा दे रही थीं, तब लंगा और मांगणियार जैसे लोक कलाकारों ने इस यंत्र को अपनाया और इसे राजदरबारों से लेकर आम जनजीवन तक पहुँचा दिया। आज भी जब रेगिस्तान में किसी जिप्सी कलाकार के हाथों में यह साज़ होता है, तो वह किसी दरवेश की तरह सूफ़ियाना नज़्मों में रूहानी रंग घोलता है।
बनावट: सादगी में छुपी नज़ाकत
रावण हत्था की बनावट बेहद नफीस और सादा होती है, लेकिन इसकी बनावट ही इसे ख़ास बनाती है। इसे बनाने के लिए ज़्यादा जटिल सामग्री की ज़रूरत नहीं होती, लेकिन इसकी हर चीज़ में एक अनूठी शिल्पकला छिपी होती है।
इसका मुख्य ढांचा लकड़ी से बना एक लंबा डंडा होता है, जो इसकी गर्दन का काम करता है।
इसका तबला या गुंबदनुमा भाग नारियल के खोल या लकड़ी से बना होता है, जिस पर बकरी की खाल मढ़ी जाती है।
दो से तीन तार इसमें लगाए जाते हैं, जिन्हें घोड़े की पूंछ के बालों से बने धनुष से बजाया जाता है।
धनुष पर रेज़िन लगाया जाता है, जिससे सुरों में गहराई और कशिश पैदा होती है।
यही सादगी इसकी सबसे बड़ी ख़ूबसूरती है। जब कोई कलाकार इसे अपने हाथों में लेता है और उसकी उंगलियां तारों पर थिरकती हैं, तो मानो किसी सूफ़ी फकीर की आवाज़ गूंज उठती है।
संगीत में इसकी अहमियत
राजस्थान का संगीत किसी भी क़िस्म के ग़म और खुशी को अपने सुरों में समेटने का हुनर रखता है, और रावण हत्था इसी हुनर का एक नायाब तोहफ़ा है। इसकी धुनें सुनते ही मन किसी रेगिस्तानी सफर पर निकल पड़ता है, जहाँ कभी ऊँटों की पदचाप की लय सुनाई देती है तो कभी किसी विरहणी का दर्द।
राजस्थान के लोक कलाकार इसे सूफ़ियाना कव्वालियों में, भवाई नृत्य और पिंगल भाषा की लोकगाथाओं में इस्तेमाल करते हैं।
यह न केवल राजस्थान, बल्कि गुजरात, मध्य प्रदेश, पश्चिम बंगाल और यहां तक कि श्रीलंका और इंडोनेशिया में भी बजाया जाता है।
पुराने समय में राजस्थानी वीर-रस की गाथाओं, जैसे पाबूजी की फड़ और देवनारायण की कथा में इसका इस्तेमाल प्रमुखता से होता था।
मॉडर्न संगीत में रावण हत्था की वापसी
आज भी कई फ़िल्मों और फ़्यूज़न संगीत में रावण हत्था की धुनें सुनाई देती हैं। बॉलीवुड फिल्मों जैसे “पद्मावत” और “बाजीराव मस्तानी” में इस यंत्र का जादू बिखरा है। कई संगीतकार इसे पश्चिमी वाद्य यंत्रों के साथ मिलाकर एक नया और अद्भुत मिश्रण तैयार कर रहे हैं।
रावण हत्था का अनूठा स्वर आज भी दुनिया भर में अपने प्रशंसकों को संगीत के सूफ़ियाना सफर पर ले जा रहा है। चाहे वह राजस्थान के रेगिस्तान की कोई तन्हा रात हो या किसी महल की रोशनियां – जब रावण हत्था की झंकार फिज़ा में गूंजती है, तो दिलों में एक अजीब सी कसक और सुकून एक साथ उतर आते हैं।
एक धरोहर जो अमर है
रावण हत्था केवल एक वाद्य यंत्र नहीं, बल्कि राजस्थान की संगीत परंपरा का एक ज़िंदा दस्तावेज़ है। यह हमें हमारी जड़ों से जोड़ता है, अतीत की कहानियों में झांकने का मौका देता है और लोक संगीत की अनमोल धरोहर की याद दिलाता है।
जब भी इसकी धुनें बजती हैं, तो ऐसा लगता है मानो कोई पुरानी प्रेम कहानी, कोई वीरता की गाथा या किसी बंजारन की अनसुनी पुकार हमसे रू-ब-रू हो रही हो। यह यंत्र हमें सिखाता है कि संगीत सिर्फ़ मनोरंजन का ज़रिया नहीं, बल्कि इबादत, इश्क़ और विरासत की एक जादुई दुनिया भी हो सकता है।
रावण हत्था: राजस्थान की मिट्टी से निकला वह साज़, जिसकी हर तान में सदियों की रूहानी गूंज बसी है!