राजस्थान की धरती वीरता, स्वाभिमान और बलिदान की गाथाओं से भरी पड़ी है। इस मिट्टी ने अनगिनत रणबांकुरों को जन्म दिया, जिन्होंने अपनी तलवार की धार से इतिहास के पन्नों पर वीरता के सुनहरे अक्षर लिखे। इन्हीं में से एक नाम है—अमरसिंह राठौड़, जिन्हें “कटार का धणी” कहा जाता है। उनका नाम सुनकर दुश्मनों के चेहरे ज़र्द पड़ जाते थे, और उनकी तलवार की झनकार ही काफी थी युद्ध भूमि में खलबली मचाने के लिए। उनका जीवन गौरव, स्वाभिमान और बलिदान की अनुपम गाथा है, जो आज भी राजस्थान के लोकगीतों में गूंजती है।
मारवाड़ की माटी से जन्मे वीर
अमरसिंह राठौड़ का जन्म राजस्थान के मारवाड़ में हुआ था। वे जोधपुर के राठौड़ वंश से ताल्लुक रखते थे, जो अपने शौर्य और स्वाभिमान के लिए प्रसिद्ध था। बचपन से ही वे असाधारण पराक्रम और साहस के धनी थे। तलवारबाज़ी, घुड़सवारी और युद्धकला में उन्हें महारथ हासिल थी। उनका व्यक्तित्व तेजस्वी था—लंबा चौड़ा कद, मांसल शरीर, उग्र नेत्र और तेज़ चाल। वे जहां जाते, लोग उनकी बहादुरी और व्यक्तित्व से प्रभावित हो जाते।
उनकी वीरता की चर्चा दूर-दूर तक फैल चुकी थी। जब उनकी बहादुरी की कहानियां दिल्ली के मुग़ल बादशाह शाहजहाँ तक पहुंचीं, तो बादशाह ने उन्हें अपनी सेना में शामिल कर लिया और उन्हें नागौर का हाकिम नियुक्त किया। इस नियुक्ति से अमरसिंह की शक्ति और प्रभाव में वृद्धि हुई, लेकिन यह शक्ति ही उनके दुश्मनों की जलन का कारण बनी।
शाही दरबार और ईर्ष्यालु सलावत खां
मुग़ल दरबार साजिशों और षड्यंत्रों का अड्डा था। अमरसिंह राठौड़ की बढ़ती प्रतिष्ठा कई दरबारियों को रास नहीं आई। उनमें सबसे प्रमुख था सलावत ख़ाँ, जो बादशाह शाहजहाँ का खासमखास अमीर था। सलावत ख़ाँ को अमरसिंह का स्वाभिमानी स्वभाव पसंद नहीं था। वह चाहता था कि अमरसिंह दरबार में बाकी राजाओं की तरह सिर झुकाकर रहें, मगर राजपूती आन-बान के धनी अमरसिंह किसी के आगे झुकना नहीं जानते थे।
एक दिन दरबार में किसी विशेष अवसर पर सलावत ख़ाँ ने अमरसिंह से 80 हज़ार अशर्फियाँ देने को कहा, जो एक तरह से अपमान का प्रयास था। अमरसिंह ने इसे अपनी प्रतिष्ठा के विरुद्ध समझा और साफ़ इनकार कर दिया। इस पर सलावत ख़ाँ ने क्रोधित होकर दरबार में उनका सार्वजनिक अपमान करने की कोशिश की। मगर यह भूल गया कि एक राजपूत योद्धा अपने आत्मसम्मान के लिए जान दे सकता है, लेकिन अपमान सहन नहीं कर सकता।
सलावत ख़ाँ की बेहूदा बातें सुनकर अमरसिंह का खून खौल उठा। उन्होंने बिना एक पल गँवाए अपनी तीखी कटार निकाली और दरबार के बीचों-बीच सलावत ख़ाँ के सीने में घोंप दी। पूरा दरबार सकते में आ गया। किसी ने सोचा भी नहीं था कि अमरसिंह इतनी तेज़ी से वार करेंगे। सलावत ख़ाँ ने तड़पते हुए दम तोड़ दिया।
मुग़ल बादशाह शाहजहाँ यह देखकर क्रोधित तो हुआ, मगर वह जानता था कि अमरसिंह की वीरता और पराक्रम अतुलनीय है। वह उन्हें सीधे तौर पर दंड नहीं दे सकता था, लेकिन उसने उनकी गिरफ्तारी का आदेश दिया। मगर अमरसिंह कोई मामूली योद्धा नहीं थे—वे वहां से तलवार लहराते हुए मुग़ल सेना को चीरते हुए निकल गए और नागौर किले में शरण ली।
नागौर में स्वाभिमान की आखिरी जंग
अमरसिंह के इस अपमानजनक विद्रोह ने शाहजहाँ की प्रतिष्ठा को चुनौती दे दी थी। बादशाह ने अपने सेनापति काज़ी अली बेग को बड़ी सेना के साथ नागौर भेजा, ताकि अमरसिंह को सबक सिखाया जा सके।
नागौर का किला युद्ध के लिए तैयार था। अमरसिंह ने अपने योद्धाओं को इकट्ठा किया और युद्ध का बिगुल बजा दिया। मुग़ल सेना ने किले को चारों तरफ से घेर लिया, लेकिन राजपूत योद्धाओं के हौसले को तोड़ पाना आसान नहीं था। अमरसिंह ने खुद अपने वीर घोड़े पर चढ़कर युद्ध का नेतृत्व किया और दुश्मनों के छक्के छुड़ा दिए।
कई दिनों तक चली भीषण लड़ाई में अमरसिंह ने अपनी तलवार से मुग़ल सेना को धूल चटा दी। मगर दुर्भाग्य से, जब वे अकेले ही मुग़लों के बीच घिर गए, तो उनके ही एक धोखेबाज़ साथी अर्जुन गुढ़ा ने विश्वासघात कर दिया। यह देख अमरसिंह क्रोधित हुए, मगर तब तक देर हो चुकी थी। मुग़ल सैनिकों ने उन्हें चारों ओर से घेर लिया और आखिरकार उन्होंने वीरगति प्राप्त की।
अमरसिंह की विरासत: कटार का धणी
अमरसिंह राठौड़ की वीरता और बलिदान ने राजपूती शौर्य की अमिट छवि को और अधिक उज्ज्वल कर दिया। उनका नाम आज भी राजस्थान के लोकगीतों, किंवदंतियों और वीरगाथाओं में जीवित है।
उनकी कहानी यह सिखाती है कि सम्मान और स्वाभिमान की रक्षा के लिए मर मिटना ही सच्चे योद्धा की पहचान होती है। उन्होंने यह सिद्ध कर दिया कि एक वीर सिर्फ़ तलवार की ताक़त से महान नहीं बनता, बल्कि अपने आत्मसम्मान और अदम्य साहस से अमर होता है।
राजस्थान में जब भी वीरता की मिसाल दी जाती है, तो “कटार का धणी” अमरसिंह राठौड़ का नाम सबसे पहले लिया जाता है। उनकी गाथा हर उस शख्स को प्रेरित करती है, जो अन्याय के विरुद्ध खड़ा होना चाहता है और अपने आत्मसम्मान के लिए लड़ना चाहता है।
उनका बलिदान यह संदेश देता है कि “सिर कट सकता है, मगर झुक नहीं सकता।”
उपनाम “कटार का धणी” क्यों पड़ा?
- उनकी कटार दुश्मनों के लिए काल समान थी, जिससे उन्होंने दरबार में ही सलावत ख़ाँ का वध कर दिया।
- उन्होंने अपनी पूरी जिंदगी कटार और तलवार के सहारे स्वाभिमान की रक्षा की।
- उनकी वीरता इतनी अप्रतिम थी कि उनका नाम कटार की धार की तरह अमर हो गया।
आज भी जब कोई अपने आत्मसम्मान के लिए लड़ने की बात करता है, तो अमरसिंह राठौड़ की कहानी हौसला देती है। उनका जीवन हर राजपूत योद्धा और स्वाभिमान से जीने वाले व्यक्ति के लिए प्रेरणा का स्रोत है। उनका बलिदान हमें यह सिखाता है कि “जिंदगी में इज्ज़त सबसे ऊपर होती है, और जब बात इज्ज़त की हो, तो तलवार उठाने से कभी न हिचकिचाना।”
लेख – गिरधर राम, बीकानेर, राजस्थान